द्रुतगामी वेग से बहता है मन
एक पल यहाँ तो एक पल वहाँ
है, बडा चंचल यह मन।।
कभी मचलता, कभी बहकता
हिरन की तरह यह फुदकता
लख जतन करने पर भी
पल दो पल नही थमता।।
लगा रहता है सदा
एक नई आस, नई प्यास में
न बुझती है, पिपाशा
कभी इस मन की ।।
तपस्वी लगे रहते हैं
इसे एकाग्र करने में
व्यतीत करते हैं, हजारों वर्ष
कुछ खास पाने में।।
एकाग्र होते ही, परमानुभूति होती है
उपलब्धियों से छवि सरोकार होती है।।
Thursday, May 6, 2010
Wednesday, May 5, 2010
अतृप्त तृष्णा
जिन्दगी उलझ गयी है
मन की तृष्णाओं में लिपट कर।
निकलना इनसे चाहता हूँ
पर चाह कर भी निकल नहीं पाता।।
असीमित हैं लालसायें मन कीं
कुछ कर गुजरना चाहता हूँ।
दल-दल रूपी भंवर मे फंस गया हूँ
प्रयत्न जितना करता हूँ निकलने का
उतना ही फंसता जाता हूँ।
कामनाओं का दमन करते हुये
इस भव-सागर से उबरना चाहता हूँ।।
मन की तृष्णाओं में लिपट कर।
निकलना इनसे चाहता हूँ
पर चाह कर भी निकल नहीं पाता।।
असीमित हैं लालसायें मन कीं
कुछ कर गुजरना चाहता हूँ।
दल-दल रूपी भंवर मे फंस गया हूँ
प्रयत्न जितना करता हूँ निकलने का
उतना ही फंसता जाता हूँ।
कामनाओं का दमन करते हुये
इस भव-सागर से उबरना चाहता हूँ।।
Monday, May 3, 2010
दामन तेरा छूटते ही Part-II
दामन तेरा छूटते ही
इस जहाँ में गुम हो गयी हूँ
इस मोह माया में फँस कर
थम-सी गयी हूँ।
मन की एक आस थी
परछांई बन तेरे साथ चलूं
कदम दो चार चलते ही
आसरा ये छूटा।
ह्दय के किसी भाग में
विक्षोभ है छुपा
व्यथित होते हुये भी
कुछ कह न संकू।
कभी सिकुडती कभी संकुचाती
विरह वेदना में जल उठती
अन्दर की भभक को कुछ यूँ दबाती
शांत दिखने का प्रयत्न करती।
रह रह कर विस्मृत परछाइयाँ उभरतीं
मन को छू कर उद्वीग्न करतीं
अब वश में नही यह मन मेरा
ढ़ांढ़स बधाने को नही साथ तेरा।।
इस जहाँ में गुम हो गयी हूँ
इस मोह माया में फँस कर
थम-सी गयी हूँ।
मन की एक आस थी
परछांई बन तेरे साथ चलूं
कदम दो चार चलते ही
आसरा ये छूटा।
ह्दय के किसी भाग में
विक्षोभ है छुपा
व्यथित होते हुये भी
कुछ कह न संकू।
कभी सिकुडती कभी संकुचाती
विरह वेदना में जल उठती
अन्दर की भभक को कुछ यूँ दबाती
शांत दिखने का प्रयत्न करती।
रह रह कर विस्मृत परछाइयाँ उभरतीं
मन को छू कर उद्वीग्न करतीं
अब वश में नही यह मन मेरा
ढ़ांढ़स बधाने को नही साथ तेरा।।
हृदय का फूल
नवजात शिशु के जन्मते ही
उमंग का आभास होता है
स्वजन हर्षोल्लासित होते हैं
मंगल गीत गाये जाते है।
जननी के हृदय में वात्सल्य भावना जागती है
परम आनन्द की अनुभूति होती है
नये रिश्तों की शुरूआत होती है
कोई मौसी तो कोई बुआ होती है।
शिशु की किलकारियों से गूँजते हैं घर आँगन
वृद्ध चेहरों की झुर्रियां मिटती हैं
कंपकंपाते हाथों में नई जान आती है।
पिता का भी मस्तक दमक उठता है
मन मचल उठता है
हर किसी का उसे छूने को
फिर से जीने की तमन्ना जागृत हो जाती है।।
Friday, April 30, 2010
दामन तेरा छूटते ही......
दामन तेरा छूटते ही.......
न रहा कोई साथी संगी इस जहाँ में
न रही कोई आस इस जहाँ में बिन तेरे।
उम्मीदों का कोई सहारा न रहा बिन तेरे
आस्था भी उठ गयी इस संसार से बिन तेरे।
दिल में जो उमंगें थीं पार्थिव हो गयीं तेरे साथ ही
हृदय में जो एक आस थी वह भी रह गयी
ऐ खुदा अब क्या रहा इस जहाँ में बिन तेरे।।
राघवेन्द्र गुप्ता 'राघव'
न रहा कोई साथी संगी इस जहाँ में
न रही कोई आस इस जहाँ में बिन तेरे।
उम्मीदों का कोई सहारा न रहा बिन तेरे
आस्था भी उठ गयी इस संसार से बिन तेरे।
दिल में जो उमंगें थीं पार्थिव हो गयीं तेरे साथ ही
हृदय में जो एक आस थी वह भी रह गयी
ऐ खुदा अब क्या रहा इस जहाँ में बिन तेरे।।
राघवेन्द्र गुप्ता 'राघव'
Subscribe to:
Posts (Atom)