दामन तेरा छूटते ही
इस जहाँ में गुम हो गयी हूँ
इस मोह माया में फँस कर
थम-सी गयी हूँ।
मन की एक आस थी
परछांई बन तेरे साथ चलूं
कदम दो चार चलते ही
आसरा ये छूटा।
ह्दय के किसी भाग में
विक्षोभ है छुपा
व्यथित होते हुये भी
कुछ कह न संकू।
कभी सिकुडती कभी संकुचाती
विरह वेदना में जल उठती
अन्दर की भभक को कुछ यूँ दबाती
शांत दिखने का प्रयत्न करती।
रह रह कर विस्मृत परछाइयाँ उभरतीं
मन को छू कर उद्वीग्न करतीं
अब वश में नही यह मन मेरा
ढ़ांढ़स बधाने को नही साथ तेरा।।
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गुप्ता जी यदि यह part II है पहला पार्ट कहां है? रचना अच्छी है किन्तु टंकण व वर्तनी संबंधी अशुद्धियों पर ध्यान दें तो भाव-प्रवाह बना रहेगा।
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