Thursday, May 6, 2010

मन की गरिमा

द्रुतगामी वेग से बहता है मन
एक पल यहाँ तो एक पल वहाँ
है, बडा चंचल यह मन।।

कभी मचलता, कभी बहकता
हिरन की तरह यह फुदकता
लख जतन करने पर भी
पल दो पल नही थमता।।

लगा रहता है सदा
एक नई आस, नई प्यास में
न बुझती है, पिपाशा
कभी इस मन की ।।

तपस्वी लगे रहते हैं
इसे एकाग्र करने में
व्यतीत करते हैं, हजारों वर्ष
कुछ खास पाने में।।

एकाग्र होते ही, परमानुभूति होती है
उपलब्धियों से छवि सरोकार होती है।।

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