जिन्दगी उलझ गयी है
मन की तृष्णाओं में लिपट कर।
निकलना इनसे चाहता हूँ
पर चाह कर भी निकल नहीं पाता।।
असीमित हैं लालसायें मन कीं
कुछ कर गुजरना चाहता हूँ।
दल-दल रूपी भंवर मे फंस गया हूँ
प्रयत्न जितना करता हूँ निकलने का
उतना ही फंसता जाता हूँ।
कामनाओं का दमन करते हुये
इस भव-सागर से उबरना चाहता हूँ।।
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गुप्ता जी इतनी जल्दी इस भवसागर से क्यों उबरना चाहते हैं..... हम आपको इतनी जल्दी नहीं जाने देंगे..... अभी आपको रहना है.....
ReplyDeleteAapki Yadon ki kushboo se har shaam mehkegi...
ReplyDeletePar ab wo baat na hogi..